Sunday, 23 January 2011

भारतीय भाषाएँ व् राष्ट्रवाद अध्याय - ४

भारतीय भाषाएँ व् राष्ट्रवाद
अध्याय - ४

साँझा शब्दों की बहुतायत से यूँ लगता है कि हम जैसे एक ही गाँव से सभी निकले हों.यहाँ मराठी व् बांग्ला का उदहारण देना चाहूँगा. दोनों भाषाएँ देश के दो दिशाओं के सीमान्त में बोली जाती हैं. लेकिन शब्दों का मेल आश्चर्यजनक से प्रभावित कर जाता है, तुमि, आमि के अलावा बहुत सारे प्राकृत शब्द दोनों भाषाओँ में विस्तृत रूप से साम्यता रखते हैं, फिर समस्या है कहाँ ?यहाँ तक कि आपसी रिश्तों के संबंधों में प्रयोग होने वाले शब्दों बहुत अधिक समानता है जैसे -दो बहूवों के मध्य का रिश्ता बांग्ला में( जा ) तो मराठी में (जाऊ) जेठ केलिए भासुर (बांग्ला ) भासरा (मराठी), दरअसल बहुत सारे आयाम में सभी आंचलिक भाषाएँ एक दूसरे से बहुत ज्यादा मिलते जुलते हैं, निम्नांकित शब्दों के बदलते स्वरुप को लीजिये, एक ही शब्द कितनी सुन्दरता से विभिन्न भाषाओँ में नए रूप में प्रगट होता है.जाना शब्द - गइल (पूर्वांचल ) - गेलो (बांग्ला) - गेला (मराठी) -- गोला (उड़िया ), अर्थात सार ये कि बलद या बैल राजस्थानी शब्द बांग्ला में उसी अर्थ के साथ प्रयोग होता है .हिय शब्द को लीजिये जो कि राजस्थानी के साथ ही बांग्ला, भोजपुरी, अवधी इत्यादि भाषाओँ में उसी अर्थ के साथ प्रयोग होता है. कहाँ कहाँ आप रेखाएं खींचेंगे पंजाबी का कोड ( गोद) शब्द बांग्ला में वही अर्थ में कोल हो जाता है.असल में इस शब्द का संस्कृत विशुद्ध रूप क्रोड़ है.
संक्षिप्त में हम सभी भारतीय एक ही माला में गुथे हुए विभिन्न फूल हैं, जिनकी अपनी अपनी मौलिक ख़ुशबू है, और यही हमारी विविधता में एकता का परिचायक  है. .

Saturday, 22 January 2011

भारतीय भाषाएँ व् राष्ट्रवाद

अध्याय -३
भारतीय भाषाएँ व् राष्ट्रवाद
भारतीय आंचलिक भाषाओँ को उनके संक्षिप्त उद्गम से अगर जोड़ कर देखें, तो हम पाएंगे कि उनका श्रोत एक ही स्थान से है. ( यहाँ हम द्राविड या दक्षिणी भाषाओँ को नहीं जोड़ रहे हैं क्योंकि उनकी अपनी एक स्वतंत्र मुख्य शाखा है और वो कई अर्थों में उत्तरी, पश्चिमी, मध्य व् पूर्व भारतीय भाषाओँ से कुछ हद तक अलग भी हैं. लेकिन संस्कृत की दृष्टि से वो इतने दूर भी नहीं हैं की हम उन्हें स्पर्श न कर सकें. ) उत्तरी, पश्चिमी, मध्य व् पूर्व भारतीय भाषाएँ दरअसल कहीं न कहीं एक ही बिंदु से निकल कर बृहत् रूप से विकसित हुए.
इनका मुख्य उद्गम स्थान प्राकृत भाषाएँ हैं जिनसे से ही बहुत सारे उपशाखाएँ विभाजित हुईं. बौद्ध व् जैन धर्मीय साहित्य में इन भाषाओँ का बहुत अधिक प्रयोग हुआ क्योंकि ये प्राकृत भाषाएँ जनमानस के मस्तिष्क व् ह्रदय से जुडी थीं, अर्थात पालि, प्राकृत व् संस्कृत इन प्राचीन भाषाओँ का आधुनिक भाषाओँ में प्रभाव रहना स्वाभाविक है, संस्कृत शताब्दियों से पांडित्य भाषा रही, इसलिए इसका स्वरुप व् प्रसार सीमित रहा. लेकिन आधुनिक भाषाओँ ने प्राकृत भाषाओँ के साथइसे जोड़ कर अपनी भाषाओँ में मधुरता के साथ एक ज्ञान का द्वार खोल दिया. वहीँ प्राचीन बौद्ध व् जैन कालों में प्राकृत व् पालि भाषा को राजकीय संरक्षण भी मिला चाहे व् अशोक सम्राट युगीन हो या हषवर्धन कालीन.
आंचलिक भाषाओँ का विकाश कालांतर में मुख्य स्वाधीन भाषाओँ के रूप में हुआ, पालि, प्राकृत व् संस्कृत से निकली उपशाखाएँ कुछ इस तरह फैली ज़रूर लेकिन मगधीय या अर्ध मगधीय भाषाओँ का असर आधुनिक भाषाओँ में अब तक देखा जा सकता है.
१. शौरसेनी, अपभ्रंस, महाराष्ट्रीय व् अर्ध मगधीय उपशाखा में - राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, हिंदी, ब्रज, कन्नौजी, इत्यादि भाषाएँ
२. दूसरी तरफ एक मुख्य उपशाखा अर्ध मगधीय व् प्राच्य मगधीय के अंतर्गत - भोजपुरी, अवधी, मगही,मैथिल,नेपाली, बांग्ला, उड़िया, असमिया, विष्णुपुरिया मणिपुरी इत्यादि भाषाओँ का समावेश है. अर्थात इन अंचलों की सभी भाषाओँ में पालि, प्राकृत, संस्कृत व् अर्ध मगधीय भाषाओँ का पूर्णतः प्रभाव है,ब्राह्मी लिपि से ही अधिकतम लिपियों का उद्गम हुआ, इन अंचलों में निम्नांकित लिपियों का प्रचलन है- १. देवनागरी -राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, हिंदी, ब्रज,मैथिल,नेपाली,इत्यादि .२ बंगला लिपि - बांग्ला,असमिया,विष्णुपुरिया मणिपुरी आदि .३. उत्कली - उड़िया ४.गुजराती लिपि ५. गुरमुखी पंजाबी ६. सिन्धी व् उर्दू ये लिपियाँ अपवाद श्रेणी में हैं क्योंकि इनकी लिपियाँ फारसी या अरबी प्रभावित हैं.
अगर ध्यान से इन तमाम भाषाओँ को देखें व् अध्ययन करें तो हम पाते हैं की लिपियों में भी बहुत कम अंतर मौजूद है. कहने का अर्थ यह हैकी ये सब भाषाएँ वास्तविक रूप से एक दूसरे से घनिष्ठता के साथ जुड़े हुयें हैं और हम एक दूसरे से लड़ते जा रहे हैं . क्रमशः

Thursday, 20 January 2011

अध्याय २ भारतीय भाषाएँ व् राष्ट्रवाद

अध्याय २
भारतीय भाषाएँ व् राष्ट्रवाद
भारतीय तमाम क्षेत्रीय भाषाओँ का अपना एक विशेष माधुर्य व् स्वाधीन साहित्य है / हिंदी (ब्रज, अवधि, भोजपुरी, छत्तीस गढ़ी, हिमाचली, उत्तराखंडी ) को ही लीजिये तमाम विरोधाभास के मध्य वो अपनी यात्रा करता रहा, भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर आधुनिक युग तक, भाषाविदों के विश्लेषण के बाह्य, हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में प्रगति करता रहा, उसे राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ व् राष्ट्रभाषा के स्वरूप में कुछ हद तक सफलता भी मिली / साहित्यिक दृष्टिकोण से उसने कितनी सफलता प्राप्त की ये आलोचना का विषय हो सकता है / लेकिन भारतीय मानचित्र में उसे सबसे अधिक बोलने, लिखने व् समझने का प्रथम स्थान अर्जित हुआ / द्वितीय स्थान बांग्ला को मिला / लेकिन इस प्रथम स्थान को ले कर भाषाविदों में हमेशा वाद विवाद रहा, क्योंकि जिन क्षेत्रों या अंचलों को ले कर हिंदी को ये सम्मान मिला वो भारतीय राज्य इस तरह से हैं, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, झारखण्ड व् मध्यप्रदेश अर्थात भारत की लगभग अर्ध जनसँख्या, लेकिन इन अंचलों में क्या वास्तविक रूप में हिंदी मूल स्वरुप में शताब्दियों से विद्यमान थी? या वर्तमान काल में इन अंचलों के भाषा भाषी इस स्वाधीनता बाद की स्थिति से खुश हैं ? ये शोध का विषय है, हालाकि एकता की दृष्टि से ये प्रयास प्रसंसीय कहा जा सकता है, लेकिन अन्दर अन्दर आंचलिक भाषाओँ में कहीं न कहीं कुंठा व् विद्रोह के स्वर मुखरित होना स्वाभाविक हैं, दरअसल मातृभाषाएँ अन्य भाषा को कभी भी ह्रदय से स्वीकार नहीं करती, ज्वलंत उदहारण पूर्व पाकिस्तान ( अधुना बांग्लादेश) को लीजिये १९५२ में पाकिस्तान ने उन पर उर्दू थोपने की कोशिश की और देखिये वही आग कालांतर में उस भूखंड को भाषा आधारित राष्ट्र बना दिया / जबकि बांग्लादेश की जनसँख्या मुस्लिम बहुल है या यूँ कहा जाय वो एक मुस्लिम राष्ट्र है / यहाँ मातृ भाषा की जड़ें इतनी सशक्त होतीं हैं की उसका फैलाव अनंत होता है, उनमें परिवर्तन करना उतना आसान नहीं /
इस लेख में राजस्थानी भाषा को मैंने हिंदी से पृथक रखा है, क्योंकि राजस्थानी भाषा का अपना एक समृद्ध साहित्य व् इतिहास रहा है, इसके आलावा एक विस्तृत लोकसंख्या उसे अपनी मातृ भाषा समझता है,और उसे संविधानिक रूप में एक स्वाधीन भाषा का स्थान देना चाहता है, जो कि उनका जन्म सिद्ध अधिकार है, और मातृभाषा का अधिकार उन्हें मिलना ही चाहिए / अतः राजस्थानी भाषी जनता के प्रयासों को अन्य भाषी लोगों का समर्थन मिलना ही चाहिए /हिंदी संपर्क भाषा की भूमिका निभा सकती है, जबतक राजस्थानी पूर्ण रूपेण प्रतिष्ठित न हो जाय, इसमें मेरी दृष्टि में हर्ज ही क्या है, उसे सविंधान में सुशोभित करने में हमें गर्व महसूस करना चाहिए, एतिहासिक पृष्ठभूमि से राजस्थानी भाषा व् संस्कृति भारतीय जनमानस का प्राचीन काल से प्रतिनिधित्व करती आ रही है / राजस्थानी भाषा व् संस्कृति से रवीन्द्रनाथ ठाकुर तक बहुत ही प्रभावित रहे और उनकी रचनाओं में इसकी झलक स्पष्ट दिखाई देती है / राजस्थानी भाषा की मधुरता बेमिशाल है / अतः उसे सभी को समर्थन देना चाहिए ताकि एक गौरवशाली भाषा व् संस्कृति को विलुप्ति से बचाया जा सके /
---- शांतनु सान्याल

भारतीय भाषाएँ व् राष्ट्रवाद

भारतीय भाषाएँ व राष्ट्रवाद
अध्याय १
भाषाएँ किसी देश की संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाती हैं, भारतीय परिपेक्ष्य में सम्प्रति इसका महत्व बहुत अधिक बढ जाता है, विश्व की सभी भाषाओँ को भाषाविदों ने मूलतः निम्नाकित श्रेणियों में विभक्त किया है।
१.इंडो यूरोपीय या भारत यूरोपीय भाषा
२.सेमेटिक या मध्य एशियाई भाषा समूह
३.अन्य एशियाई व आदिवासी भाषाएँ
भारतीय भाषाएँ मूलतः प्रथम समूह - इंडो यूरोपीय समूह में आते है, अंग्रेजी, जर्मनी, फ्रेंच व् फारसी के साथ, इस आलेख में मैं भारतीय भाषाओँ की साम्यता के बारे में संक्षित विश्लेषण करना चाहूँगा कि हम भारतियों में भाषा को ले कर ढेरों भ्रांतियां पायी जाती हैं, दरअसल हम सब एक साथ शताब्दियों से रह रहे हैं लेकिन फिर भी एक दूसरे से अनभिज्ञ हैं, और अकारण ही एक दूसरे की भाषाओँ को कोसते रहते हैं जबकि धरातल में भारतीय भाषाओँ का उद्गम संस्कृत, पालि व प्राकृत भाषाएँ हैं।
१. प्रथम सत्र में मैं हिंदी ( राजस्थानी, ब्रज, अवधी, मागधी, भोजपुरी मिश्रित ) व बांग्ला,उड़िया, असमिया भाषाओँ का वर्णन व विश्लेषण करना चाहूँगा / इतिहास में न जाते हुए हम देखेंगे कि तमाम उत्तर भारतीय भाषाएँ असल में एक हैं, कोस कोस में जैसे पानी और बोली बदल जाती है ठीक उसी तरह से मुख्य भाषाएँ समय समय में अपने मूल स्वरुप को नया कलेवर देती रहती हैं, बांग्ला - अर्ध मागधीय  भाषा है, लिपि देवनागरी से ९०-९८ % तक मिलती है, बांग्ला कि मधुरता उसकी ग्राम्य या मागधीय अपभ्रंश की  वजह से द्विगुणित होती है, संस्कृत शब्दों के अलावा साहित्यकारों ने इन मौलिक पालि या प्राकृत या यूँ कहा जाय आम बोली को सुन्दरता के साथ साहित्य में जोड़ा, बांग्ला जिस तरह से लिखा जाता उस तरह बोला नहीं जाता, उदहारण के लिए, आपको लिखना स्मृति है - उच्चारण होगा सृती, मृ यहाँ लोप है, बाण - बान के रूप में उच्चारित किया जायेगा। बांग्ला की मधुरता की वजह, मौलिक या ग्राम्य शब्दों को यथावत प्रयोग करने से है।  दरअसल सम्पूर्ण उत्तर पूर्व, मध्य, उत्तर पश्चिम भारत एक ही माला के विभिन्न फूल हैं,बांग्ला, उड़िया व  असमिया एक दूसरे से काफी मिलते हैं। लेकिन बांग्ला बिहारी भाषाओँ के सबसे ज्यादा नज़दीक है।  इसके पीछे इतिहासिक कारण हैं, बिहार व अविभाजित बंग शताब्दियों से एक ही अंचल रहे हैं।  मैथिल, मगही, मागधी, भोजपुरी व  बांग्ला दरअसल एक ही पेड़ की शाखाएं हैं।  ब्रज व  राजस्थानी भाषाओँ का बांग्ला में प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। बिहान शब्द को ही लिया जाय, बिहान या प्रातः एक सुंदर शब्द है जो बांग्ला में भी उसी अर्थ के साथ साहित्य में प्रयोग होता है। उत्तराँचल के कई गीतों में बांग्ला की महक आती है, विशेषतः भोजपुरी के सैकड़ों शब्द बांग्ला में प्रयोग होते हैं। इन उत्तर भारतीय भाषाओँ व  बांग्ला में सिर्फ एक ही अंतर है और वो उच्चारण से है, अगर आप मागधीय उच्चारण को बांग्ला से हटा दें तो आप  पायेंगे की इन भाषाओँ में जैसे कुछ  भी अंतर नहीं है।  ब्रज भाषा का बांग्ला में बहुत प्रभाव है, पठायो शब्द को लीजिये, पठायो का अर्थ भेजा, इसी अर्थ में ये शब्द बांग्ला में प्रयोग होता है। सिर्फ बांग्ला में ही नहीं यही शब्द भिन्न स्वरुप में मराठी में भी प्रयोग होता है, मूल रूप से उपर्युक्त भारतीय अंचल असल में एक ही भाषा समूह से सम्बन्ध रखते हैं , कालांतर में स्वाधीन रूप से विकसित हुए, राजनैतिक, विदेशी प्रभाव का असर भी हुआ किन्तु इस विविधता के मध्य हमारी संस्कृति अप्रभावित रही और उसकी एक ही वजह थी सनातन धर्म की आधारभूमि, पूर्ण भारत इस महान संस्कृति के अंतर्गत समाहित है, और ये निरंतर बना रहना चाहिए, उसके लिए हमें भाषायी सद्भाव बनाये रखना चाहिए। ताकि देश की उन्नति में हर एक वर्ग अपना योगदान दे सके। 

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 - - शांतनु सान्याल