Thursday 20 January 2011

अध्याय २ भारतीय भाषाएँ व् राष्ट्रवाद

अध्याय २
भारतीय भाषाएँ व् राष्ट्रवाद
भारतीय तमाम क्षेत्रीय भाषाओँ का अपना एक विशेष माधुर्य व् स्वाधीन साहित्य है / हिंदी (ब्रज, अवधि, भोजपुरी, छत्तीस गढ़ी, हिमाचली, उत्तराखंडी ) को ही लीजिये तमाम विरोधाभास के मध्य वो अपनी यात्रा करता रहा, भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर आधुनिक युग तक, भाषाविदों के विश्लेषण के बाह्य, हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में प्रगति करता रहा, उसे राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ व् राष्ट्रभाषा के स्वरूप में कुछ हद तक सफलता भी मिली / साहित्यिक दृष्टिकोण से उसने कितनी सफलता प्राप्त की ये आलोचना का विषय हो सकता है / लेकिन भारतीय मानचित्र में उसे सबसे अधिक बोलने, लिखने व् समझने का प्रथम स्थान अर्जित हुआ / द्वितीय स्थान बांग्ला को मिला / लेकिन इस प्रथम स्थान को ले कर भाषाविदों में हमेशा वाद विवाद रहा, क्योंकि जिन क्षेत्रों या अंचलों को ले कर हिंदी को ये सम्मान मिला वो भारतीय राज्य इस तरह से हैं, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, झारखण्ड व् मध्यप्रदेश अर्थात भारत की लगभग अर्ध जनसँख्या, लेकिन इन अंचलों में क्या वास्तविक रूप में हिंदी मूल स्वरुप में शताब्दियों से विद्यमान थी? या वर्तमान काल में इन अंचलों के भाषा भाषी इस स्वाधीनता बाद की स्थिति से खुश हैं ? ये शोध का विषय है, हालाकि एकता की दृष्टि से ये प्रयास प्रसंसीय कहा जा सकता है, लेकिन अन्दर अन्दर आंचलिक भाषाओँ में कहीं न कहीं कुंठा व् विद्रोह के स्वर मुखरित होना स्वाभाविक हैं, दरअसल मातृभाषाएँ अन्य भाषा को कभी भी ह्रदय से स्वीकार नहीं करती, ज्वलंत उदहारण पूर्व पाकिस्तान ( अधुना बांग्लादेश) को लीजिये १९५२ में पाकिस्तान ने उन पर उर्दू थोपने की कोशिश की और देखिये वही आग कालांतर में उस भूखंड को भाषा आधारित राष्ट्र बना दिया / जबकि बांग्लादेश की जनसँख्या मुस्लिम बहुल है या यूँ कहा जाय वो एक मुस्लिम राष्ट्र है / यहाँ मातृ भाषा की जड़ें इतनी सशक्त होतीं हैं की उसका फैलाव अनंत होता है, उनमें परिवर्तन करना उतना आसान नहीं /
इस लेख में राजस्थानी भाषा को मैंने हिंदी से पृथक रखा है, क्योंकि राजस्थानी भाषा का अपना एक समृद्ध साहित्य व् इतिहास रहा है, इसके आलावा एक विस्तृत लोकसंख्या उसे अपनी मातृ भाषा समझता है,और उसे संविधानिक रूप में एक स्वाधीन भाषा का स्थान देना चाहता है, जो कि उनका जन्म सिद्ध अधिकार है, और मातृभाषा का अधिकार उन्हें मिलना ही चाहिए / अतः राजस्थानी भाषी जनता के प्रयासों को अन्य भाषी लोगों का समर्थन मिलना ही चाहिए /हिंदी संपर्क भाषा की भूमिका निभा सकती है, जबतक राजस्थानी पूर्ण रूपेण प्रतिष्ठित न हो जाय, इसमें मेरी दृष्टि में हर्ज ही क्या है, उसे सविंधान में सुशोभित करने में हमें गर्व महसूस करना चाहिए, एतिहासिक पृष्ठभूमि से राजस्थानी भाषा व् संस्कृति भारतीय जनमानस का प्राचीन काल से प्रतिनिधित्व करती आ रही है / राजस्थानी भाषा व् संस्कृति से रवीन्द्रनाथ ठाकुर तक बहुत ही प्रभावित रहे और उनकी रचनाओं में इसकी झलक स्पष्ट दिखाई देती है / राजस्थानी भाषा की मधुरता बेमिशाल है / अतः उसे सभी को समर्थन देना चाहिए ताकि एक गौरवशाली भाषा व् संस्कृति को विलुप्ति से बचाया जा सके /
---- शांतनु सान्याल

No comments:

Post a Comment